
कुमाऊं में शुरू हुआ बैठकी होली का दौर
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में बैठकी होली की धुनें गूंज रही हैं। हर साल पौष महीने से शुरू होकर यह होली गायन बसंत पंचमी तक चलता है। इस दौरान रामनगर, नैनीताल, अल्मोड़ा और हल्द्वानी जैसे शहरों में होली गीतों की खास महक छाई रहती है।
1000 साल पुरानी परंपरा, चंद वंश से हुई शुरुआत
कुमाऊं में होली गायन का इतिहास 1000 साल से भी अधिक पुराना माना जाता है। इसका आरंभ सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से हुआ। माना जाता है कि चंद वंश के शासनकाल (15वीं शताब्दी) से बैठकी होली की परंपरा शुरू हुई। यह परंपरा काली कुमाऊं, गुमदेश और सुई से फैलते हुए पूरे कुमाऊं क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गई।
शास्त्रीय रागों पर आधारित बैठकी होली
बैठकी होली का गायन शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है। इसमें भक्ति और निर्वाण से जुड़े गीत गाए जाते हैं। जैसे, “भव भंजन गुन गाऊं, मैं अपने राम को रिझाऊं” और “क्या जिन्दगी का ठिकाना, फिरते मन क्यों रे भुलाना।” होली गायन गणेश पूजन से शुरू होकर राधा-कृष्ण की लीलाओं और भक्ति गीतों के साथ आगे बढ़ता है।
होली गायन के उद्देश्य पर प्रकाश
होली गायक शिक्षक कैलाश चंद्र त्रिपाठी ने बताया कि बैठकी होली का उद्देश्य नई पीढ़ी को इस परंपरा से जोड़ना और इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाना है। इस वर्ष 15 दिसंबर 2024 से शुरू हुआ यह होली गायन बसंत पंचमी तक चलेगा। इसमें भक्ति गीत, भजन और प्रभु की स्तुति पर आधारित रागों का गायन किया जाएगा।
युवाओं और बच्चों को जोड़ने का प्रयास
होली गायक शेखर चंद जोशी का कहना है कि बैठकी होली का मकसद युवाओं और बच्चों को इस परंपरा से जोड़ना है ताकि वे इसे सीख सकें और आगे बढ़ा सकें। वहीं, पूर्व शिक्षक विपिन कुमार पंत ने बताया कि होली गायन में राग भैरवी और अन्य शास्त्रीय रागों का मिश्रण होता है, जिससे यह संगीतमय परंपरा और भी खास बनती है।
जाड़ों की ठंड में जुटते हैं लोग
बैठकी होली के दौरान लोग जाड़ों में आग जलाकर एक जगह इकट्ठा होते हैं। यह सामूहिक आयोजन न केवल संगीत की परंपरा को जीवित रखता है, बल्कि सामाजिक समरसता और उत्साह का प्रतीक भी है।
कुमाऊंनी संस्कृति की अनूठी पहचान
बैठकी होली कुमाऊंनी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी विशेषता यह है कि यह शास्त्रीय संगीत और भक्ति को जोड़ते हुए एक अद्भुत संगीतात्मक अनुभव प्रदान करती है।