उत्तराखण्ड वन विभाग ने 161 पवित्र प्राकृतिक स्थलों का किया दस्तावेजीकरण
पहली बार वैज्ञानिक अध्ययन में शामिल हुए पवित्र वन, उपवन, बुग्याल और उच्च हिमालयी झीलें

देहरादून | India7Live न्यूज़ डेस्क
परंपरा और विज्ञान के संगम की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल करते हुए उत्तराखण्ड वन विभाग ने राज्यभर में फैले 161 पवित्र प्राकृतिक स्थलों (Sacred Natural Sites) का पहली बार वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण किया है। इनमें पवित्र वन, उपवन (ग्रोव), उच्च हिमालयी बुग्याल और पवित्र झीलें शामिल हैं।
अध्ययन के अनुसार, चिन्हित स्थलों में 83 पवित्र वन, 62 पवित्र उपवन, 12 अल्पाइन बुग्याल और 4 उच्च हिमालयी झीलें हैं। इनमें प्रसिद्ध नन्दी कुंड (15,748 फीट), सातोपनाथ ताल (15,100 फीट), हेमकुण्ड साहिब (14,200 फीट) और काक भुसुंडी ताल (14,763 फीट) शामिल हैं।
वन विभाग के मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि “यह पहला अवसर है जब उत्तराखण्ड के पवित्र प्राकृतिक स्थलों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक सर्वेक्षण हुआ है, जिसमें केवल उपवन ही नहीं बल्कि झीलें और बुग्याल भी शामिल किए गए हैं। यह अध्ययन दिखाता है कि प्रकृति की रक्षा श्रद्धा और समुदाय की भागीदारी से ही संभव है।”
यह एक वर्षीय अध्ययन (2024 से शुरू) वन अनुसंधान प्रकोष्ठ के शोधकर्ताओं मनोज सिंह, योगेश त्रिपाठी और दीक्षित पाठक द्वारा किया गया। इसमें फील्ड सर्वे, जीपीएस मैपिंग, पारिस्थितिकीय मूल्यांकन और एथ्नोबॉटनिकल डॉक्युमेंटेशन शामिल थे। अध्ययन में 47 कुलों से 147 पौधों की प्रजातियाँ दर्ज की गईं, जिनमें कुटकी (Picrorhiza kurrooa), नागचत्री (Trillium govanianum) और ब्रह्मकमल (Saussurea obvallata) जैसी दुर्लभ व संकटग्रस्त औषधीय प्रजातियाँ भी हैं।
गढ़वाल क्षेत्र में 46 पवित्र उपवन चिन्हित हुए, जिनमें उल्कागाड़ी मंदिर (पौड़ी), अनसूया देवी (चमोली), सुरकंडा देवी व चन्द्रबांदी मंदिर (टिहरी), लाटू देवता (चमोली) और तुंगनाथ (रुद्रप्रयाग) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वहीं कुमाऊँ क्षेत्र में 90 से अधिक पवित्र उपवन दर्ज किए गए, जिनमें ध्वज (पिथौरागढ़), जागेश्वर मंदिर वन (अल्मोड़ा), गोलू देवता मंदिर क्षेत्र, हिंगला देवी वन (चम्पावत) और थल केदार (पिथौरागढ़ — राज्य का पहला जैव विविधता धरोहर स्थल) शामिल हैं।
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि इन स्थलों पर बढ़ता पर्यटन, अतिक्रमण, चराई, ईंधन लकड़ी का दोहन और युवाओं में पारंपरिक आस्थाओं का क्षय जैसी चुनौतियाँ मंडरा रही हैं। तपकेश्वर और सहस्रधारा जैसे पर्यटक क्षेत्रों के पास के उपवनों में पहले से ही पारिस्थितिकीय दबाव दिखने लगा है।
अध्ययन में सिफारिश की गई है कि पवित्र प्राकृतिक स्थलों को औपचारिक रूप से वन प्रबंधन और जैव विविधता संरक्षण रणनीतियों में शामिल किया जाए तथा स्थानीय समुदायों — खासकर महिलाओं और युवाओं — को सहभागी प्रबंधन में सशक्त बनाया जाए।
यह पहल जापान इंटरनेशनल को-ऑपरेशन एजेंसी (JICA) की योजना के तहत संचालित हुई, जो यह दर्शाती है कि उत्तराखण्ड की पर्यावरणीय धरोहर, सांस्कृतिक परंपराएँ और आध्यात्मिक आस्था गहराई से जुड़ी हुई हैं और इनका संरक्षण ही राज्य के सतत भविष्य की कुंजी है।